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पकोड़े की असाधारण यात्रा : परंपरा, स्वाद और स्मृति का समवेत संगम, भारत की चाय की प्याली से लेकर वैश्विक प्लेटों तक पहुंचा पकोड़ा

फोटो- गूगल


भारतीय पाक संस्कृति में यदि किसी व्यंजन ने मौसम, भूगोल, इतिहास और समाज को एकरस स्वाद में पिरोया है, तो वह पकोड़ा है। यह मात्र एक खाद्य वस्तु नहीं, बल्कि भारतीय जीवनशैली की गूढ़ सांस्कृतिक परतों को कुरकुरी अभिव्यक्ति देने वाला प्रतीक है। पकोड़े की उत्पत्ति प्राचीन भारत की उस धरोहर से जुड़ी है, जब सिंधु घाटी सभ्यता में चने की कृषि आरंभ हुई थी और उसके उपोत्पाद बेसन का उपयोग दैनिक आहार में देखा गया। संस्कृत में 'पक्ववट' यानी पकाई गई गोल वस्तु से जन्मे इस शब्द ने मुगलकालीन पाक परिष्कार के दौरान 'पकौरा' का रूप लिया और फिर क्षेत्रीय भाषाओं के साथ विभिन्न स्वरूपों में ढल गया—गुजरात में भजिया, तमिलनाडु में पक्कोड़ा, बंगाल में पिजुरा, तो कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कामरूप तक इसकी सौंधी सुगंध बिखर गई। प्रारंभिक काल में यह व्यंजन शुद्ध शाकाहारी रूप में विकसित हुआ, जिसमें मौसमी सब्जियों को चने के आटे के घोल में लपेटकर गरम तेल में तला जाता था, परंतु जैसे-जैसे यह मुगलों की रसोई में प्रवेश करता गया, वैसे-वैसे इसमें अंडा, मटन, मछली और पनीर जैसे तत्वों का समावेश हुआ, जिससे इसकी विविधता और बहुलता को नया आयाम मिला। इतिहास में यह दर्ज है कि अकबर के दरबार में 'बंदगी पकोड़े' नामक पनीर से भरवां हरी मिर्च के पकोड़े विशेष रूप से परोसे जाते थे। सोलहवीं सदी में पुर्तगालियों द्वारा लाई गई मिर्च ने जब भारतीय मसालों की दुनिया में प्रवेश किया, तब इस व्यंजन ने नए स्वाद के साथ अपने पारंपरिक स्वरूप को और भी समृद्ध किया।

भारत की विविध जलवायु और भूगोल ने पकोड़े को अनेक स्थानीय स्वरूप प्रदान किए। उत्तर भारत में जहाँ प्याज़ और पालक के पकोड़े प्रसिद्ध हैं, वहीं महाराष्ट्र की कांदा भजी और गुजरात की मूंगफली भजिया मानसून के साथ जुड़ी एक विशेष स्मृति बन चुकी है। दक्षिण भारत में आलू बोंडा, मेंसिनकाय बज्जी और मैसूर भजिया जैसे संस्करण स्थानीय स्वादों के अनुरूप ढले हुए हैं, जबकि पूर्वी भारत में मछली आधारित 'मछ्लेर बोरा' और झींगे से बने 'चिंगुड़ी भजा' जैसे रूप इसकी समुद्री संस्कृति से तालमेल दर्शाते हैं। विशेष रूप से महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान में यह व्यंजन वर्षा ऋतु में अत्यंत लोकप्रिय होता है। आयुर्वेद के सिद्धांतों के अनुसार वर्षा ऋतु में वात दोष के संतुलन हेतु तले हुए और गर्म खाद्य पदार्थ उपयोगी माने जाते हैं, और यहीं से पकोड़ा केवल स्वाद नहीं, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण बन जाता है।

इस व्यंजन की सामाजिक भूमिका भी कम प्रभावशाली नहीं है। भारतीय समाज में यह न केवल उत्सवों का हिस्सा रहा है, बल्कि चाय की दुकानों, ठेलों और घर की चौपालों पर बातचीत का बहाना भी बना है। फिल्म 'बरफी!' का संवाद "क्यों न पकोड़े खाएं?" इस बात का सजीव उदाहरण है कि यह व्यंजन किस प्रकार जनमानस की स्मृति में बस चुका है। दिल्ली की चावड़ी बाज़ार की गलियों में 'नटराज दही भल्ला' से लेकर अहमदाबाद की 'भजिया पट्टी' तक, पकोड़ा एक ऐसा व्यवसायिक माध्यम बन चुका है जिसने असंख्य लोगों को रोज़गार प्रदान किया है। मुंबई की भजिया गलियों में एक साथ 50 से अधिक प्रकार के भजिये उपलब्ध होना इस बात का प्रमाण है कि इसकी विविधता भारतीय पाक परंपरा की सृजनशीलता को दर्शाती है।

पकोड़े की लोकप्रियता केवल भारत तक सीमित नहीं रही। ब्रिटिश उपनिवेशकाल के दौरान यह व्यंजन इंग्लैंड पहुँचा और 'ओनियन भजी' के नाम से वहाँ के फास्ट फूड मेनू में शामिल हुआ। लंदन की ब्रिक लेन में 1947 से लगातार प्याज़ भजिया बिक रही है। अमेरिका में इसे 'वेजिटेबल फ्रिटर्स' कहा जाता है, वहीं नेपाल, श्रीलंका और पाकिस्तान में इसके क्षेत्रीय संस्करण पाए जाते हैं। जापान में 2018 में 'इंडियन करी' के साथ पकोड़े को बौद्धिक संपदा घोषित करने की कोशिशों ने यह स्पष्ट कर दिया कि यह व्यंजन अब केवल भारतीय नहीं, वैश्विक पहचान बन चुका है।


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तकनीकी और वैज्ञानिक उन्नति ने भी इस व्यंजन को अपने नवाचार से प्रभावित किया है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने अंतरिक्ष यात्रियों के लिए विशेष डिहाइड्रेटेड पकोड़े विकसित किए, जो कम गुरुत्वाकर्षण में भी खपत योग्य हैं। दिल्ली और बेंगलुरु जैसे शहरों के आधुनिक रेस्तराँ में अब एवोकाडो पकोड़ा, ट्रफल-टिंडा भजिया और पेस्टो-भजिया जैसे फ्यूजन संस्करण परोसे जा रहे हैं, जहाँ पश्चिमी सामग्रियों को भारतीय पारंपरिक तकनीक से जोड़ा गया है। स्वास्थ्य-प्रेमी पीढ़ी के लिए एयर-फ्रायड संस्करणों ने एक नया विकल्प प्रदान किया है, जहाँ बिना तेल में तले, गर्म हवा से कुरकुरा बनाया गया पकोड़ा स्वास्थ्य और स्वाद दोनों का संतुलन प्रदान करता है।

आंकड़ों की दृष्टि से भी पकोड़ा एक रोचक अध्याय प्रस्तुत करता है। 2022 में इंदौर ने 7,000 किलोग्राम प्याज भजिया बनाकर गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में स्थान प्राप्त किया। भारत में प्रतिदिन 20 करोड़ से अधिक पकोड़े बेचे जाते हैं, जो इसकी सर्वसुलभता और जनप्रियता का परिचायक है। सत्यजीत रे की फिल्म 'प्रतिद्वंद्वी' में पकोड़े द्वारा जासूसी का दृश्य इस व्यंजन की सांस्कृतिक गहराई को फिल्मी कैनवस पर लाता है।

इस प्रकार पकोड़े की कथा केवल भोजन की नहीं, बल्कि उस सांस्कृतिक चक्रव्यूह की है, जिसमें मौसम, भूगोल, इतिहास, परंपरा, नवाचार और समाज एक ही तेल में तलकर आपस में घुल-मिल जाते हैं। यह भारतीय लचीलापन, अनुकूलन और परंपरा के साथ आधुनिकता के सहअस्तित्व का प्रतीक है। जब भी मानसून की पहली बूँदें भारत की पथरीली या मिट्टीली धरती से टकराती हैं, तब चाय की प्याली के साथ किसी न किसी घर के किचन में बेसन का घोल बनता है और फिर सुनहरा, कुरकुरा, सुगंधित पकोड़ा इस महान सभ्यता की धड़कन के रूप में जनमानस की जिह्वा पर उतरता है। यह धड़कन न केवल स्वाद की है, बल्कि उस इतिहास की भी है, जिसे हम प्रतिदिन अपने थाल में परोसते हैं, कभी जानकर, कभी अनजाने ही।


 बारिश के मौसम में बनाएं मूंग दाल के कुरकुरे पकोड़े,
दिन बन जाएगा यादगार

मानसून की पहली बूंदें जब ज़मीन से टकराती हैं, तो एक अलौकिक-सा एहसास वातावरण में फैल जाता है। इस भीगे मौसम में मन अनायास ही कुछ गर्मागर्म, चटपटा खाने की ओर झुक जाता है। ऐसे में चाय की प्याली और गरमागरम पकोड़े, खासकर मूंग दाल के कुरकुरे पकोड़े, एक परिपूर्ण आनंद देते हैं। मूंग दाल के पकोड़े न सिर्फ स्वाद में लाजवाब होते हैं, बल्कि इन्हें बनाना भी बेहद आसान है। यही कारण है कि उत्तर भारत के अनेक घरों में ये पकोड़े हर बारिश में अनिवार्य रूप से बनाए जाते हैं।

मूंग दाल के पकोड़े की लोकप्रियता का कारण उसका स्वाद, कुरकुरापन और सहजता से मिलने वाली सामग्री है। इन्हें तैयार करने के लिए न तो बहुत ज्यादा समय चाहिए और न ही कोई महंगे मसाले। यही नहीं, यह रेसिपी घर के हर सदस्य को पसंद आती है — बच्चे, बड़े, या बुजुर्ग सभी इसे चाव से खाते हैं।

फोटो- न्यूज18.काॅम

मूंग दाल पकोड़ा: सामग्री की सूची (4–5 लोगों के लिए)

मूंग दाल – 1 कप (छिलके वाली या बिना छिलके वाली, दोनों विकल्प मान्य हैं)

अदरक – 1 इंच का टुकड़ा

हरी मिर्च – 2 (बारीक कटी हुई)

प्याज – 1 मध्यम आकार का (बारीक कटा हुआ)

हरा धनिया – 2 चम्मच (बारीक कटा हुआ)

नमक – स्वादानुसार

हींग – एक चुटकी

जीरा – आधा चम्मच

बेसन – 1 से 2 चम्मच (यदि मिश्रण पतला हो जाए तो)

तेल – तलने के लिए

मूंग दाल के कुरकुरे पकोड़े बनाने की विधि

1. दाल भिगोना:

मूंग दाल को साफ करके धो लें और 3 से 4 घंटे के लिए पानी में भिगो दें। यदि जल्दी बनाना हो तो गुनगुने पानी में 1 से 1.5 घंटे भिगोने से भी काम चल जाएगा।

फोटो- सोशल मीडिया


2. पीसना:

भीगी हुई दाल से अतिरिक्त पानी निकाल दें और इसे अदरक और हरी मिर्च के साथ दरदरा पीस लें। ध्यान रखें कि यह बिल्कुल पेस्ट न बन जाए, इसमें थोड़ा दरदरापन रहना चाहिए जिससे पकोड़ों की बनावट अच्छी बने।


3. बैटर तैयार करना:

पीसी हुई दाल में प्याज, हरा धनिया, नमक, हींग, जीरा और बेसन मिलाएं। यदि मिश्रण पतला लग रहा हो तो थोड़ा और बेसन या चावल का आटा मिलाया जा सकता है।


4. तेल गरम करना:
कढ़ाही में तेल गरम करें। जब तेल अच्छी तरह गरम हो जाए, तो आंच को मध्यम कर लें ताकि पकोड़े भीतर तक अच्छे से पकें और बाहर से कुरकुरे बनें।

5. तलना:

हाथ या चम्मच की मदद से थोड़ा-थोड़ा मिश्रण तेल में डालें और दोनों तरफ से सुनहरा भूरा होने तक तलें। इन्हें निकालकर टिशू पेपर पर रखें ताकि अतिरिक्त तेल हट सके।


कुछ खास सुझाव:

प्याज मिलाने के बाद पकोड़े तुरंत तलना शुरू करें, वरना मिश्रण पानी छोड़ने लगेगा।

बैटर अगर बहुत पतला हो जाए तो बेसन या चावल का आटा डालकर गाढ़ा किया जा सकता है।

स्वाद में विविधता के लिए इस मिश्रण में बारीक कटी पालक, कसूरी मेथी या कद्दूकस की हुई गाजर भी डाली जा सकती है।

पकोड़ों को चाय, हरी चटनी, इमली की चटनी या टमैटो सॉस के साथ परोसना सबसे बेहतर होता है।


हरी चटनी की आसान रेसिपी

आवश्यक सामग्री:

हरा धनिया – 1 कप

पुदीना – आधा कप

हरी मिर्च – 1 या 2 (स्वादानुसार)

अदरक – आधा इंच

नींबू का रस – 1 चम्मच

काला नमक – स्वाद अनुसार

पानी – आवश्यकतानुसार


विधि:

सभी सामग्री को मिक्सर में डालें और बारीक पीस लें। जरूरत हो तो थोड़ा पानी मिलाएं। नींबू का रस चटनी को ताजगी प्रदान करता है और उसका रंग भी बना रहता है। यह चटनी मूंग दाल के पकोड़ों के साथ खाने में अत्यंत स्वादिष्ट लगती है।

क्यों खास है यह रेसिपी?

बारिश के मौसम में जब वातावरण में नमी और ठंडक घुली होती है, तब मन कुछ गरम और कुरकुरा खाने को तरसता है। ऐसे समय में मूंग दाल के पकोड़े एक आदर्श व्यंजन साबित होते हैं। न तो यह बहुत भारी होते हैं, न ही इन्हें बनाने में कोई विशेष दिक्कत आती है। इनके साथ एक प्याली गर्म चाय पी जाए तो दिन और भी यादगार बन जाता है।

इसके अतिरिक्त, यह रेसिपी बहुपरिवारिक मौकों पर भी कारगर रहती है। जब अचानक मेहमान आ जाएं या परिवार के सभी सदस्य एक साथ बैठकर गपशप कर रहे हों, तो यह पकोड़े उस पल को और भी स्वादपूर्ण बना देते हैं।


स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायक भी

मूंग दाल प्रोटीन का अच्छा स्रोत होती है और पाचन में भी हल्की मानी जाती है। यह न केवल स्वाद को बढ़ाती है बल्कि सेहत के लिहाज से भी एक अच्छा विकल्प होती है। यदि पकोड़े कम तेल में तले जाएं और घर की बनी हरी चटनी के साथ खाए जाएं, तो यह एक संतुलित और स्वादिष्ट नाश्ता बन जाता है।

इस मानसून सीज़न में मूंग दाल के कुरकुरे पकोड़े आपके हर पल को खास बना सकते हैं। चाहे वह अकेले बैठकर बारिश देखना हो, परिवार के साथ शाम बिताना हो या दोस्तों के साथ गर्म चाय की चुस्की लेनी हो — यह आसान रेसिपी हर मौके को यादगार बना देती है। बस कुछ सामान्य सामग्री और थोड़ी-सी तैयारी, और आप तैयार हो सकते हैं स्वाद और खुशबू से भरपूर एक अनुभव के लिए।

पकौड़ा-भारतीय संस्कृति की कुरकुरी धड़कन 

भारतीय पाक परंपरा के मुकुट में जड़ा एक ऐसा रत्न जो सर्दी की धुंध को कुरकुरी स्वप्निलता और बरसात की फुहारों को मसालेदार उल्लास में बदल देता है - पकोड़ा न केवल एक व्यंजन बल्कि भारत की सांस्कृतिक स्मृति का स्वादिष्ट अध्याय है। इसकी जड़ें प्राचीन काल की उर्वर मिट्टी में गहराई तक धँसी हैं, जहाँ यह चने के आटे और मौसमी सब्जियों की मित्रता से उपजा एक शुद्ध शाकाहारी आविष्कार था। मुगलों की रसोई में जब शाही बावर्चियों ने अंडे, चिकन और मटन जैसे मांसाहारी प्रयोगों से इसे सजाया-संवारा, तब इसकी पाक यात्रा ने एक नवीन मोड़ लिया, जिसने भारत की गैस्ट्रोनॉमिक बहुलता को समृद्ध किया। पकोड़े की भाषाई यात्रा का जन्म संस्कृत के 'पक्ववट' (पकी हुई गोल वस्तु) शब्द की कोख से हुआ, जो मुगलकालीन परिष्कार के साथ 'पकौरा' बना और क्षेत्रीय विविधता के स्पर्श से गुजरात में 'भजिया', तमिलनाडु में 'पक्कोदा' तथा बंगाल में 'पिजुरा' के रूप में फला-फूला। इसकी ऐतिहासिक नींव सिंधु घाटी सभ्यता (2600 ई.पू.) में चने की कृषि के पुरातात्विक प्रमाणों में दृष्टिगत होती है, जहाँ बेसन के उपयोग की प्राचीनतम कहानी आज भी धरती की परतों में दफन है।मध्यकालीन भारत (500-1500 ई.) में सब्जियों को बेसन के सुनहरे आवरण में लपेटकर तलने की कला ने एक क्रांतिकारी रूप धारण किया। मुगल शासनकाल में यह कला शाही परिष्कार से सजी - अकबर के दरबार में पेश किए जाने वाले 'बंदगी पकोड़े' (पनीर-भरवां हरी मिर्च) ने इस साधारण व्यंजन को दरबारी शान प्रदान की। सोलहवीं शताब्दी में पुर्तगालियों द्वारा लाई गई मिर्च ने एक स्वाद क्रांति का सूत्रपात किया, जिसने काली मिर्च और सरसों के पारंपरिक मसालों को गौण बना दिया।भारत के विशाल भूगोल ने पकोड़े को ऐसी अद्वितीय पहचान दी कि आज यहाँ के प्रत्येक कोने में इसका एक विशिष्ट रूप विद्यमान है। उत्तर भारत के पालक गुच्छे और प्याज़ के घेरों से लेकर महाराष्ट्र की कांदा भजी, दक्षिण के आलू बोंडा और मेंसिनकाय बज्जी तथा पूर्वी भारत के मछ्लेर बोरा (मछली) और चिंगुड़ी भजा (झींगा) जैसे संस्करण सांस्कृतिक बहुलता का स्वादिष्ट मानचित्र प्रस्तुत करते हैं। विशेष रूप से "प्याज़ भजिया" ने भारतीय स्नैक्स के शीर्ष दस में अपना स्थान बनाया है - महाराष्ट्र और गुजरात की यह पहचान मानसून का पर्याय बन चुकी है। मुंबई की 'भजिया गलियों' में पतली कटी प्याज़ की कुरकुरी परतें जिस कला से तैयार की जाती हैं, वहाँ पचास से अधिक प्रकार की भजियाँ एक साथ पाई जा सकती हैं।सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में पकोड़ा भारतीय जीवन के ताने-बाने में इस प्रकार गुंथा हुआ है कि यह मौसम, उत्सव और दैनिक जीवन का अविभाज्य अंग बन गया। बरसात में इसकी लोकप्रियता केवल स्वाद के कारण नहीं, बल्कि आयुर्वेद के 'वात संतुलन' सिद्धांत पर आधारित है, जो वर्षा ऋतु में तले भोजन को शारीरिक संतुलन का साधन मानता है। चाय की दुकानों से लेकर घरेलू चौपालों तक यह सामाजिक संवाद का माध्यम रहा है - फिल्म 'बरफी!' का प्रसिद्ध संवाद "क्यों न पकोड़े खाएं?" इसकी सांस्कृतिक अंतर्भुक्ति का सजीव प्रमाण है। दिल्ली के 'नटराज दही भल्ला' जैसे ऐतिहासिक ठेले इसकी आर्थिक महत्ता के साक्षी हैं, जबकि अहमदाबाद की 'भजिया पट्टी' (मणिनगर की 2 किमी लंबी गली) तो समर्पित भजिया बाजार के रूप में विख्यात है।पकोड़े से जुड़े रोचक तथ्य इसकी वैश्विक यात्रा के मार्गदर्शक बनते हैं। 2022 में इंदौर ने 7,000 किलो प्याज भजिया बनाकर गिनीज बुक में स्थान बनाया, तो भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने अंतरिक्ष यात्रियों के लिए विशेष डिहाइड्रेटेड पकोड़े विकसित किए। आयुर्वेद में हल्दी-बेसन के पकोड़ों को घाव भरने में उपयोगी माना गया, जबकि लंदन की "ब्रिक लेन" में 1947 से 'ओनियन भजी' बेची जा रही है। सत्यजीत रे की क्लासिक फिल्म 'प्रतिद्वंद्वी' (1970) में पकोड़ों द्वारा जासूसी का प्रसंग भारतीय सिनेमा में इसकी सूक्ष्म उपस्थिति दर्शाता है। 2018 में जापान द्वारा "इंडियन करी" के साथ पकोड़े को अपनी बौद्धिक संपदा घोषित करने के प्रयास ने एक विवाद खड़ा कर दिया, जो इसकी वैश्विक लोकप्रियता का प्रमाण था। वैश्विक पटल पर पकोड़ा ब्रिटिश उपनिवेशकाल में 'ओनियन भजी' के रूप में विदेशी धरा पर अवतरित हुआ। आज अमेरिका में 'वेजिटेबल फ्रिटर्स', नेपाल में 'पकौड़ा', श्रीलंका में 'पकोडा' और पाकिस्तान में 'भजिया' के रूप में यह दक्षिण एशियाई पाक पहचान का प्रतीक बन चुका है। आधुनिक रसोई विज्ञान ने पकोड़े को नवीन आयाम दिए हैं। गौरमे संस्करणों में एवोकाडो फ्रिटर्स एक उत्कृष्ट उदाहरण है - जहाँ पश्चिमी सुपरफूड को भारतीय बेसन के घोल में लपेटकर तला जाता है, जिससे क्रीमी टेक्स्चर और कुरकुरेपन का अद्वितीय संगम बनता है। स्वास्थ्य-चेतना ने एयर-फ्राइड संस्करणों को जन्म दिया है, जहाँ सिंकी हुई हरी मिर्च या पनीर के टुकड़े बिना तेल डुबोए केवल हवा के ताप से सुनहरे कुरकुरेपन तक पहुँचते हैं। फ्यूजन प्रयोगों ने इसे अंतर्राष्ट्रीय स्वादों से जोड़ा: इटैलियन पेस्टो की तीखी ताज़गी पुदीना-धनिया चटनी के स्थान पर ली गई है, तो मैक्सिकन सालसा की चटपटी गर्माहट इमली की खटास का विकल्प बनी है। दिल्ली के 'इंडियन एक्सटेंडेड टेबल' जैसे प्रयोगशाला रेस्तराँ में ट्रफल-टिंडा पकोड़े जैसे संस्करण इसकी रचनात्मक ऊँचाइयों को दर्शाते हैं। यह नवाचार दर्शाता है कि कोई परंपरागत व्यंजन कैसे आधुनिकता के साथ सामंजस्य बिठाकर स्वयं को पुनर्परिभाषित कर सकता है। एक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि भारत में प्रतिदिन 20 करोड़ से अधिक पकोड़े बिकते हैं, जो इसकी सर्वव्यापकता का जीवंत प्रमाण है।अंततः पकोड़े की यात्रा प्राचीन कृषि परंपराओं से उद्भूत होकर मुगल परिष्कार, औपनिवेशिक आदान-प्रदान और वैश्विक फास्ट-फूड संस्कृति तक की एक ऐसी गाथा है जो भारतीय लचीलेपन एवं अनुकूलन क्षमता का प्रतीक है। यह कुरकुरी धड़कन केवल तले हुए आटे और सब्जियों का मिश्रण नहीं, बल्कि उन अनगिनत हाथों की स्मृति है जिन्होंने इसे पीढ़ियों तक सँजोया, उन बारिश भरे दोपहरों की कहानी है जब चाय की चुस्कियों के साथ यह मित्रता करता है, और उस सांस्कृतिक डीएनए का हिस्सा है जो भारत को अद्वितीय बनाता है। जब तक मानसून की पहली बूँद भारतीय मिट्टी से टकराएगी, तब तक पकोड़े की सुगंध इस सभ्यता की जीवंत धड़कन बनी रहेगी।


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