x पितृपक्ष में गया जी का महत्व : श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान की परंपरा

Ticker

6/recent/ticker-posts

Ad Code

Responsive Advertisement

पितृपक्ष में गया जी का महत्व : श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान की परंपरा

फोटो-सोशल मीडिया

सनातन धर्म में प्रत्येक दिन का एक विशेष महत्व माना गया है। भारतीय संस्कृति में न केवल देवी-देवताओं की पूजा का विधान है, बल्कि पशु-पक्षियों, वृक्षों और प्रकृति की आराधना करके भी आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। यही कारण है कि जब किसी परिवार का सदस्य इस संसार से विदा लेता है, तो उसके मोक्ष और आत्मा की शांति के लिए विशेष धार्मिक कर्मकांड किए जाते हैं। इन्हीं में से सबसे महत्वपूर्ण है श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान। पितरों को श्रद्धा से तर्पण और पिंडदान अर्पित करने से वे संतुष्ट होते हैं और बदले में अपने वंशजों को आशीर्वाद प्रदान करते हैं। जब पितरों की बात आती है तो बिहार के गया धाम का उल्लेख अनिवार्य हो जाता है। हिंदू धर्मग्रंथों में गया जी को पितरों के मोक्ष का सर्वोच्च तीर्थ माना गया है। गरुड़ पुराण और वायु पुराण में गया जी की महिमा का विस्तार से वर्णन मिलता है। मान्यता है कि गया जी में पिंडदान करने से पितरों को सीधे मोक्ष की प्राप्ति होती है।


गयासुर की कथा और विष्णुपद का महत्व

पौराणिक कथाओं के अनुसार गया जी का नाम एक राक्षस गयासुर के कारण पड़ा। गयासुर ने ब्रह्मा जी से वरदान मांगा कि वह इतना पवित्र हो जाए कि मात्र उसके दर्शन से लोग पाप मुक्त हो जाएं। वरदान मिलने के बाद गयासुर ने सभी जीवों को मोक्ष देना शुरू कर दिया। इससे यमराज चिंतित हो उठे और देवताओं से सहायता मांगी। देवताओं ने गयासुर से यज्ञ करने का आग्रह किया। गयासुर ने सहमति दी और अपने शरीर पर यज्ञ करने की अनुमति दे दी। ब्रह्मा जी ने उसे वचन दिया कि यज्ञ पूरा होने तक वह शरीर नहीं हिलाएगा। यज्ञ के दौरान गयासुर को भारी बोझ का अनुभव हुआ और वह हिलने लगा, तब भगवान विष्णु ने उसके शरीर के ऊपर अपना पैर रख दिया। इस कारण यह स्थान विष्णुपद कहलाया। भगवान विष्णु ने गयासुर को वरदान दिया कि यह स्थान "गया" कहलाएगा और यहां जो भी श्राद्ध, तर्पण या पिंडदान करेगा, उसके पितरों को 108 पीढ़ियों तक मोक्ष की प्राप्ति होगी। तभी से गया जी में पिंडदान का महत्व बढ़ा और इसे पितरों के मोक्ष का सबसे बड़ा स्थल माना जाने लगा।


फोटो-सोशल मीडिया

भगवान राम, सीता और पांडवों का पिंडदान

गया जी की महत्ता केवल गयासुर की कथा तक सीमित नहीं है। त्रेतायुग में स्वयं भगवान राम ने माता सीता के साथ यहां पिंडदान किया था। कथा के अनुसार जब राम जी देर से पिंडदान सामग्री लेने लौटे, तो दशरथ जी की आत्मा प्रकट हुई और तुरंत पिंडदान करने का आग्रह किया। उस समय माता सीता ने फल्गु नदी की रेत से पिंडदान किया। तभी से यहां सीता कुंड का महत्व विशेष रूप से बढ़ गया। इसी प्रकार महाभारत काल में पांडवों ने भी अपने पूर्वजों के मोक्ष के लिए गया जी में पिंडदान किया। इन प्रसंगों से स्पष्ट है कि गया जी में पिंडदान केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि एक परंपरा और आस्था का प्रतीक है।


पितृपक्ष का आयोजन और महत्व

यद्यपि गया जी में सालभर पिंडदान होता है, लेकिन भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्दशी (अनंत चतुर्दशी) से लेकर आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक यहां विशेष रूप से श्राद्ध और पिंडदान का आयोजन होता है। इसे ही पितृपक्ष मेला कहा जाता है। इस दौरान लाखों श्रद्धालु देश-विदेश से यहां आते हैं और अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान करते हैं। मान्यता है कि इस काल में किया गया श्राद्ध और तर्पण पितरों तक अवश्य पहुंचता है और वे तृप्त होकर आशीर्वाद देते हैं।


फोटो-सोशल मीडिया

प्राचीन वेदियों का महत्व और वर्तमान स्थिति

प्राचीन समय में गया जी में श्राद्ध और पिंडदान के लिए 365 वेदियां थीं। हर दिन अलग-अलग वेदियों पर पिंडदान किया जाता था। किंतु समय के साथ अतिक्रमण और प्रशासनिक उदासीनता के कारण अब केवल 55 वेदियां ही शेष रह गई हैं। इसके बावजूद पितृपक्ष में यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। प्रति वर्ष लगभग 20 से 25 लाख श्रद्धालु गया जी पहुंचते हैं और अपने पितरों के लिए पिंडदान करते हैं। जिला प्रशासन इस अवसर पर विशेष इंतज़ाम करता है—टेंट सिटी, भोजनालय, आवास, सुरक्षा और चिकित्सा जैसी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं।


वर्तमान पितृपक्ष और विशिष्ट आगंतुक

इस वर्ष भी गया जी में 6 सितंबर से पितृपक्ष मेला शुरू हुआ है। अभी तक कई प्रमुख लोग यहां पिंडदान के लिए आ चुके हैं। इनमें बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, टीवी धारावाहिक महाभारत में दुर्योधन की भूमिका निभाने वाले पुनीत इस्सर, और बागेश्वर धाम के पीठाधीश्वर बाबा धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री शामिल हैं। सभी ने अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति और मोक्ष की कामना करते हुए पिंडदान किया।

फोटो-सोशल मीडिया

सनातन धर्म में पितरों की स्मृति और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान केवल कर्मकांड नहीं बल्कि श्रद्धा और आस्था की अभिव्यक्ति है। गया जी धाम इस परंपरा का केंद्र है, जहां पौराणिक कथाओं और ऐतिहासिक प्रसंगों ने इसकी महत्ता को और भी बढ़ा दिया है। हर वर्ष लाखों श्रद्धालु यहां आकर अपने पूर्वजों को मोक्ष दिलाने की कामना करते हैं। यह न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि भारतीय संस्कृति में पितरों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता की जीवंत झलक भी प्रस्तुत करता है।



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ